साहित्य अकादमी भवन में किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित कमलाकांत त्रिपाठी के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक उपन्यास ‘सरयू से गंगा’ पर मुरली मनोहर प्रसाद सिंह की अध्यक्षता में एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा में प्रो. नित्यानंद तिवारी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे ।
विषय-प्रवर्तन करते हुए प्रसिद्ध कथाकार संजीव ने सरयू से गंगा को इतिहास एवं सामाजिक जीवन के विस्तृत फलक पर लिखी गई एक वृहद् और महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति बताया। पानीपत, प्लासी, बक्सर, मुगल साम्राज्य का ह्रास, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वर्चस्व में सतत् विस्तार और नेपाल के एकीकरण की प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में उन्होंने मालगुजारी, ठेकेदारी, तालुकेदारी, किसानी और खेती को उपन्यास के केन्द्र में बताया। उपन्यास की देशज भाषा के सौन्दर्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि पूरा उपन्यास अवधी की छौंक से सुगन्धित है।
दूसरे वक्ता अमित धर्म सिंह ने उपन्यास को इतिहास, समाज और जीवन के तीन भिन्न सन्दर्भों में बांटकर देखा। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में कम्पनी के प्रभुत्व में विस्तार के साथ किसान रिआया की तकलीफों, लगान की मार से उसके शोषण तथा स्त्री जीवन की विडम्बना को उन्होंने वर्तमान परिदृश्य के लिए प्रासंगिक बताया। जीवन पक्ष पर बात करते हुए उन्होंने धर्म का अतिक्रमण करते हुए मानव मन की सत्ता और मन के मिलने से ही सार्थक हिन्दू-मुस्लिम एकता को उपन्यास में साकार होते देखा।
पत्रकार एवं लेखक राकेश तिवारी ने उपन्यास में धार्मिक आडम्बर के रूप में महामृत्युंजय जप के प्रसंग का जिक्र करते हुए, लेखक को ऐसे आडम्बरों के विरूद्ध खड़े देखा। उन्होंने अठारहवीं सदी के सामाजिक-राजनीतिक संक्रमण तथा लेखीपति, जमील और रज्जाक जैसे पात्रों के माध्यम से साझा-सांस्कृतिक विकास के महत्व को लक्षित किया। राकेश जी ने सरयू से गंगा को मूलतः ग्रामीण किसान और मजदूर वर्ग का उपन्यास बताया।
कवि और आलोचक बली सिंह ने उपन्यास के विस्तृत फलक पर तत्कालीन गाँव, किसान, खेत, फसल, जंगल, नदी आदि के भौगोलिक और प्राकृतिक परिदृश्य को मूर्तिमान होते हुए देखा। इस संदर्भ में उन्होने लेखक की पैनी एवं प्रामाणिक दृष्टि के सामने गूगल को अक्षम पाया। उन्होंने कहा, उपन्यास एक नाटकीय शैली में लिखा गया है जिसमें इतिहास नामक पात्र सूत्रधार की भूमिका निभाता है। नवाबों और कम्पनी के बीच की संधि से किसान को कुछ लेना-देना नहीं है किन्तु वह उसके आधार पर होने वाले शोषण का सबसे बड़ा शिकार बनता है। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में ऐसी ही संधि सरकार और पूँजीपति के बीच होती है जिसका खामियाजा किसान जनता को बेराजगारी, भुखमरी और आत्महत्या के रूप में भुगतना पड़ता है। उपन्यास का मुख्य पात्र लेखीपति मिलीभगत की इस जकड़ से निकलने के लिए संघर्ष करता दिखाई पड़ता है। उपन्यास में लोकतांत्रिक एकीकरण की चेतना और राष्ट्र राज्य का संदेश अंतर्निहित है जो धार्मिक, सांस्कृतिक मिथकों तक सीमित था किन्तु जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं था।
आलोचना पत्रिका के संपादक संजीव कुमार ने उपन्यास कथा के दो उज्वल पक्षों- धर्मनिरपेक्षता एवं जनपक्षधरता- का नोटिस लिया। लेखीपति, जमील और रज्जाक जैसे पात्र धर्म का अतिक्रमण कर एकजुट होते हैं और कम्पनी के ऊपर नवाब की निभर्रता से समाज में जो भयानक, अराजक और शोषक स्थिति पैदा होती है उसके विरूद्ध सफल संघर्ष करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और लेखक कैलाश नारायण तिवारी ने लेखकीय स्वायत्तता और स्वतंत्रता का मुद्दा उठाते हुए कहा कि कमलाकान्त ने अपने इस उपन्यास में इतिहास के वृहत्तर फलक के दायरे में लेखीपति, जमील, रज्जाक, सावित्री जैसे पात्रों की परिस्थितियों के अनुरूप उनके मनोभावों और सूक्ष्म संवेदना का जो उन्मुक्त खाका खींचा है और जिस तरह परिवार, गाँव, घर के आपसी संबंधों का मानवीय रूप प्रस्तुत किया है, उसे पढते हुए प्रेमचन्द के गोदान में गुंथी दो समान्तर कथाओं की याद आती है। उपन्यास में हिन्दू-मुस्लिम संबंध को धर्म से इतर विशुद्ध मानवीय धरातल पर दिखाया गया है जो सूक्ष्म संवेदना से ओतप्रोत है।
अगले वक्ता कर्ण सिंह चौहान ने कहा कि कोई भी कृति हमारे सामने संवाद के लिए होती है और यह उपन्यास हमारे सामने ढेरों संवाद प्रस्तुत करता है। संप्रति फैशन के तहत प्रचलित अस्मिताओं से निरपेक्ष यह उपन्यास सहज, मानवीय हिन्दुस्तानी भावनाओं का एक आत्मीय आईना है जिसमें समाज की जमीनी हकीकत प्रतिबिम्बित होती है। देश में स्वतंत्र ग्रामीण इकाई की जो स्वस्थ और सम्यक् व्यवस्था हजारों साल से चली आ रही थी अंग्रेजो ने उसे एक झटके में तोड़ दिया और उसी के साथ समाज, संस्कृति, और उत्पादन के उत्कृष्ट उपादान ध्वस्त कर दिए।
प्रसिद्ध नाटककार-कथाकर असग़र वजाहत ने बताया कि उपन्यास भूत, वर्तमान और भविष्य में विचरण करते हुए अवध प्रदेश की सामंती व्यवस्था के उपनिदेशवादी व्यवस्था में अंतरण की कथा कहता है। उपन्यास में हमें तत्कालीन समाज में धर्म उस अर्थ से भिन्न अर्थ में दिखाई पड़ता है जो आज के समाज में हावी होता जा रहा है।
मुख्य अतिथि प्रो. नित्यानंद तिवारी ने कहा कि उपन्यास इतिहास की धारा को सही ढंग से उभारता है। उसकी अन्तःगतिशीलता और क्राइसिस की धार को कुंठित नहीं करता। तत्कालीन समाज में जो डर व्याप्त है, उपन्यास का हर पात्र उसकी गिरफ्त में है। उस डर और उसके पीछे की अमानवीयता से सतत् लड़ता हुआ दिखाई पड़ता है जो आज के परिदृश्य के लिए बेहद प्रासंगिक है। उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम साझा समाज का वह रूप पेश करता है जो जायसी के पद्मावत में मिलता है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने उपन्यास को इतिहास की प्रक्रिया से उपजे उस संकट के मर्म को खोलने वाला बताया जिसमें व्यापारी बनकर आए अंग्रेज राजसत्ता पर काबिज होते हैं। इतिहासकार रायचौधरी का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि इस उपन्यास में उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासों की तरह कहीं भी मुस्लिम पुरुष और महिला पात्रों को मानव चरित्र की बुराई की प्रतीक के रूप में नहीं दिखाया गया है। यह कृति धर्म का अतिक्रमण करती हुई मुनष्य के उज्वल पक्ष को उजागर करने के कारण इस शताब्दी की महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति के रूप में जानी जाएगी।
परिचर्चा का कुशल संचालन अभिषेक शुक्ल ने किया ।अंत में अनुपम भट्ट ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए सभी उपस्थित वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति आभार प्रकट किया।